ہندی مضامین



आपत्ति से पहले खुद में सुधार की फ़िक्र किजीए
मुसलमानों की आबादी बढ़ने की बात जो हक़ीक़त नही है,
अगर मान भी ली जाए……

धार्मिक आधार पर जनसंख्या के आंकड़े प्रकाशित होने के बाद इस बात का उल्लेख क्या जा रहा है कि भारत में मुसलमानों की आबादी में वृद्धि हुई है। रिपोर्ट में जहां हिंदुत्व के अलमबरदारों ने चिंता जताई है वहीं प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी अलग-अलग विश्लेषण प्रकाशित किए हैं। हिन्दी अखबार अमर उजाला का कहना है अगले पेंतीस साल तक मुसलमान हिंदुओं के मुकाबले आधे भी नही पहुँच पाएंगे, इसलिए अफवाह फैलाने वाले आराम से बैठें। वहीं दैनिक भास्कर ने लिखा कि यदि हिन्दू मुसलमान की आबादी मौजूदा दर से बढ़ती रही तो दोनों को बराबर होने में 270 लगेंगे। यानि अगर ऐसा हुआ तो 2285 तक भारत की जनसंख्या 13,000 करोड़ होजाएगी। इसके विपरीत इंग्लिश दैनिक दा-हिंदू के अनुसार वास्तविकता यह है कि मुसलमानों में जनसंख्या वृद्धि दर अन्य के मुकाबले, सबसे तज़ गिरी है। इन समीकरणों के अलावह विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया अपने विवादास्पद लेख में  लिखते हैं, यदि मुस्लिम दो से अधिक बच्चे पैदा करते हैं तो उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलना चाहिये, साथ ही राशन, काम और शिक्षा सुविधा भी उनसे छिन लेना चाहिए। तोगड़िया का यह बयान आर एस एस के प्रवक्ता 'आर्गेनाइजर' में छपा है। बयान पर चुप्पी साधी जाए? कानूनी कार्रवाई की मांग हो या फिर इस बयान को सांप्रदायिक सद्भाव को भारी नुकसान पहुंचाने वाला समझा जाए? यह फैसला आपको करना है। लेकिन वर्तमान इस्तीथी में इस्लाम और मुसलमानों के संबंध में देश के प्रधानमंत्री किया कहते हैं, इस ओर भी हम आपका ध्यान आकर्षित करावाना चाहते हैं। मोदी जी की मन की बात यह है कि दुनया के सामने इस्लाम की वास्तविक तस्वीर पेश की जनि चाहिये जिस में सूफी परंपराऐं भी शामिल हैं। बक़ौल उनके इन परंपराओं में शामिल प्रेम और उदारता के पैग़ाम से पूरी मानवता को लाभ पहुँचाया जा सकता है। सवाल यह उठता है कि सूफी परम्पराएँ जिन्हें एक समय में भक्ति आंदोलन से जोड़ा गया था, के प्रभाव से प्रभावित परंपराओं में क्या शुद्ध इस्लाम पेश क्या जाता है? और अगर नहीं तो फिर शुद्ध को छोड़कर मिलावटी जीवन शैली को क्यों अपनाया जाए? मिलावटी परंपराओं में प्यार और उदारता महसूस होती है तो शुद्ध में तो और भी ​​अधिक प्यार, सहानुभूति और शांति का संदेश निहित है। और सत्य भी यही है कि वास्तविक इस्लाम मनुष्य को भगवान और दास, दोनों के अधिकार पूरे करने की ओर आकर्षित करता है। इसलिए वास्तविक इस्लाम ही को इख़तियार क्या जाए न कि पारंपरिक इस्लाम को। लेकिन यह मुसलमानों की ज़िम्मेदारी की वह वास्तविक इस्लाम केवल कथन ही से नहीं बल्कि प्रक्रिया से भी पेश करें, तब ही दुनिया शांति का गहवारा  होगी।

हम देखते हैं कि आज इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम करने का हर संभव प्रयास जारी है। एक उन लोगों की ओर से जो खुद को मुसलमान कहते हैं। लेकिन प्रक्रिया इस्लाम के विपरीत है। तो दोसरी उन लोगों की ओर से जो खुद को प्रगतिशील, रौशन ख़्याल और आधुनिक मुसलमान कहलाना पसंद करते हैं। और एक और समूह है जो बड़े पैमाने पर सक्रिय है, उसी समूह के एक व्यक्ति तोगड़िया साहब भी हैं। एक कदम और आगे बढ़ें तो मालूम होगा कि इस्लाम और मुसलमानों को केवल बदनाम ही नही क्या जा रहा है बल्कि उनकी पहचान समाप्त करने और मिटाने की भी कोशिशें जारी हैं। इन प्रयासों में मसलक की बुन्याद पर बाँटना, लोकतंत्र के मुक़ाबले शहन्शाहियत और डिक्टेटरशिप को बढ़ावा देना, आपसी युद्ध, सांप्रदायिक दंगो, व्यक्तियों, संस्थानों, और जमातों के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को संदिग्ध बनाना, और अंतिम रणनीति आतंकवाद के नाम पर, कुछ को छोड़ कर, बड़ी संख्या में मुस्लिम युवकों को शक के आधार पर जेलों की कोठरियों में क़ैद क्या जाना है। और अगर वतन-ए-अज़ीज़ की बात करें तो यहां एक लंबे समय से आर्थिक, सामाजिक, शिक्षात्मक, और राजनीतिक मैदानों में, देश के सबसे कमजोर वर्ग दलितों से भी गई गुज़री हालत में पहुंचाने का संगठित प्रयास जारी है। जिसका ज़िंदा उदाहरण वह डेटा एवं विश्लेषण है जो 'सच्चर कमेटी रिपोर्ट' की रौशनी में दुन्या के सामने आया है। परिणामस्वरूप मुसलमान अलग-अलग हेसयतों से खानों में बांटे जा चुके हैं और इस विभाजन एवं बिखरने में खुद मुस्लमानों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है।

एक ज़माने में, अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहो अलेहे वस्सलाम ने फ़रमाया था, एक समय आएगा जब दुन्या मुसलमानों पर ऐसे टूटेगी जैसे दस्तरखुवान पर भूखे टूट पड़ते हैं। सहाबा कराम (नबी के साथियों) ने हैरत व्यक्त करते हुए पूछा, या रसूल अल्लाह, क्या उस समय हम संख्या में बहुत कम होंगे? आप ने कहा, नहीं, तुम संख्या में बहुत ज़्यादह होगे, लेकिन तुम्हारे अंदर एक बीमारी पैदा हो जाएगी, जिसका नाम वहन है। सहाबा ने पूछा वहन किया है? आपने कहा, दुन्या से मोहब्बत और मौत का डर (बुखारी व मुस्लिम)। हक़ीक़त यह है कि आज जहां कहीं भी फ़साद बरपा है और जो ज़िल्लतें व रुस्वाइयां मुसलमानों को उठानी पड़ रही हैं, उसका बुनयादी कारण दुन्या से बेइंतिहा मोहब्बत मौत का भय ही है। दुन्या की मोहब्बत में इंसान ने इंसानियत से नेता तोड़ लिया है, अत्याचार और ज़ुल्म व ज़्यादतियों में वृद्धि हुई है, इंसानों के हुक़ूक़ पूरा करने में सक्रिय नहीं, परिणामस्वरूप कथनी व करनी, संदेश से खाली है। इसके विपरीत जो लोग आखिरत (Day of Judgment) को याद रखते हैं, स्वर्ग और नरक का सतर्कता से निरीक्षण करते हैं, दुनिया की आलाईशों से परहेज करते हैं, मौत को याद रखते हैं और शांति व भाईचारे को बढ़ावा देते हुए अधिकारों को पूरा करते हैं, वही लोग दुन्या में फैले फिसाद को भी रोक सकते किए हैं।

और आज बहुत कम ही सही लेकिन एक संख्या ऐसी ज़रूर मौजूद है जो इस्लाम से सच्चा प्रेम रखती है, उसकी शिक्षाओं की रौशनी में अपने दिन और रात को सवांरती है, हक़ीक़ी पैग़ाम को अपने अमल से आम करती है। नतीजे में वह डर, भय, और झूठा प्रचार ग़लत साबित होता है, जो इस्लाम और मुसलमानों के संबंध में जारी है। फिर यह भी होता है कि एक ओर भारत की राजधानी दिल्ली में, जंतर मंतर पर विशेष समाज के लोग, अपने ऊपर होने वाले अत्याचार की खातिर, इस्लाम के आग़ोश में शरण लेते हुए, पिछले धर्म से नाता तोड़ते हैं, तो वहीं दूसरी ओर अफ्रीका महाद्वीप के रवांडा में एक चर्च ही मस्जिद में बदल जाता है और सैकड़ों ईसाई मुशर्रफ--इस्लाम होते हैं। सवाल उठता है और उठना ही चाहिये कि एक ऐसे काल में जबकि मुसलमान खुद चारों ओर अत्यंत ज़ुल्म व ज़ियादतियों और हिंसा व उत्पीड़न का शिकार हैं, दुन्या इस्लाम क्यों स्वीकार कर रही है? किया वह नही जानते कि मौजूदा दौर में मुसलमानों पर दुन्या में क्या ज़्यादतियाँ हो रही हैं? क्या वह ना समझ और अज्ञान हैं? या इस्लाम इख्तियार करना वास्तव में एक बहाना या इसके पीछे कुछ ही उद्देश्य और है? “नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है" यह उनके शब्द हैं, हमारे नहीं। और ऐसा इस लिए भी नही है क्यों की वह समझदार भी हैं और ज्ञान वाले भी। साथ ही उनके नज़दीक इस्लाम इख्तियार करने का उद्देश्य अगर कुछ है तो केवल एक उद्देश्य, और वह यह कि इस्लाम सभी मुसलमानों को बराबर का दर्जा प्रदान करता है। यहाँ जाति, ऊँच-नीच, काले-गोरे की दर्जाबन्दियां नहीं हैं और न ही यहाँ व्यवसाय के आधार पर कोई उच्च है तो कोई कमतर। भेदभाव है तो कर्मों के आधार पर, मुत्तक़ी व परहेज़गार होने के कारण। इसके बावजूद ग़लती, पाप, और कानून तोड़ने की सज़ा सभी के लिए बराबर है। चाहे परहेज़गारी में वे उच्च स्तर पर हो या कमतर पर। वहीं आर्थिक रूप से वह अमीर हो या ग़रीब और चाहे वह सत्तारूढ़ होने के नाते क्यों ना उच्चतम स्थान ही पर कार्यरत हो। हाँ यह अलग बात है की पीड़ित खुद ही, बिना ज़ोर ज़बरदस्ती, अत्याचारी की सजा में कुछ कमी करदे या वह उसे माफ ही करदे। दोसरी ओर इस्लाम इंसान को मनुष्यों का गुलाम नही बल्कि, उस ईश्वर का दास बनाता है जिसने दुनिया में मौजूद हर चीज़ को बनाया है।

और अंतिम बात यह कि इस्लाम, अक़ीदा--आख़िरत (Day of Judgment) से सूचित करता है, जिस पर किसी व्यक्ति या समूह का विश्वास, अगर प्रक्रिया में बदल जाए, तो फिर उसके लिए दुन्या और आखिरत दोनों स्थान पर कामयाबी यक़ीनी है। एक ऐसी कामयाबी-व सरख़रोई जो हमेशा-हमेशा के लिये है, जो अविनाशी है, अनन्त और चिरस्थायी है। इस्लाम में प्रवेश करते होए ऊपर लिखे कुछ फायदों के अलावा अनगिनत लाभ और भी हैं, जिन्हें हम और आप समाज में रहते होए अच्छी तरह महसूस करते हैं। इसके बावजूद मुसलमानों की ज़िल्लत व रुसवाई के चर्चे हर तरफ़ आम हैं। कहीं सीरिया में जारी गृहयुद्ध की शकल में तो कहीं म्यांमार में "शांतिपूर्ण बधस्टों" के ज़रिए, कहीं पीड़ित फिलिस्तीनियों पर हो रहे अत्तियाचार की शकल में, तो कहीं वतन-ए अज़ीज़ में दंगों, पकड़ धाकड़ और ना जाने किन किन शक्लों में. . . . . यही कारण है कि देश का उपराष्ट्रपति, एक बैठक में अपने मुख्य भाषण के बीच कहते हैं की भारत में मुसलमान असुरक्षित हैं, सरकार को चाहिये वह सबका साथ सबका विकास' नारे को यक़ीनी बनाते हुए सकारात्मक कदम ले, ताकि विकास की दौड़ में सब बराबर से शरीक हो सकें।

इस पृष्ठभूमि में मुसलमानों की आबादी बढ़ने की बात जो हक़ीक़त नही है, अगर मान भी ली जाए तो हम कहेंगे कि हाँ मुसलमानों की आबादी बढ़ रही है, और वतन-ए अज़ीज़ ही में नही बल्कि पूरी दुन्या में, लेकिन आबादी में यह वृद्धि बच्चे पैदा करके नहीं बल्कि इस्लाम की उच्च शिक्षा से प्रभावित होकर सामने आ रही है। इस लिए अगर किसी को इस्लाम स्वीकार करने वालों से आपत्ति हो तो आपत्ति से पहले खुद में सुधार की फ़िक्र किजीए, अन्यथा केवल एतिराज़ और प्रतिबंधों से उन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं क्या जा सकता जो आप चाहते हैं !

vvvvvvv
  =========================================================
जोगेन्द्र सिंह: एक साहसी पत्रकार 
सुप्रीम कोर्ट ने यूपी के पत्रकार जोगेन्द्र सिंह को जिंदा जलाकर मार डालने के मामले में केंद्र सरकार और राज्य सरकार से आज जवाब तलब किया है। न्यायमूर्ति एम वाई इकबाल और जस्टिस अरुण मिश्रा की पीठ ने पत्रकार सतीश जैन की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र, राज्य सरकार और प्रेस कांसिल ऑफ इंडिया को नोटिस जारी करके जवाबी हलफनामा दायर करने का आदेश दिया है। अदालत ने इन तीनों को जवाब के लिए दो सप्ताह का समय दिया है। इस मामले में सुनवाई अब दो सप्ताह बाद होगी। आवेदक ने मामले की सी बी आई से जांच कराए जाने के साष ही पत्रकारों की सुरक्षा के लिए स्पष्ट दिशा निर्देशों (गाईद लाइंस) जारी करने की उच्चतम न्यायालय से अपील की है।

याचिका में यह भी कहा गया है कि अगर किसी भी पत्रकार की गैर प्राकृतिक मौत होती है तो उसकी जांच अदालत की निगरानी में हो। आवेदक के वकील आदेश अग्रवाल ने प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया के आंकड़ों के हवाले से कहा कि पिछले ढाई साल में 70 पत्रकारों की हत्या हुई है। ऐसे में जरूरी है कि पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कोई गाइड लाइन जारी की जाए। उनकी इन तर्कों के बाद कौंसिल को भी याचिका में पक्ष बनाया गया है। मालूम होना चाहिए कि यूपी के शाहजहांपुर के पत्रकार जोगेन्द्र सिंह की मौत कुछ दिनों पहले हुई थी। उन्होंने मौत से पहले बयान दिया था कि राज्य मंत्री राममूर्ति वर्मा के कहने पर कुछ पुलिस वालों ने उन पर पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दी थी।

पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कोई गाइड लाइन जारी की जाए, यह बात इस लिए भी ज़रूरी हे कह पिछले कई सालों से पत्रकारों की हत्या अब एक आम बात बनती जा रही है। अभी मामला जोगेन्द्र सिंह का सामने आया ही था कह अब मध्यप्रदेश के बालाघाट ज़िले में एक और पत्रकार के अपहरण के बाद कथित हत्या का मामला सामने आगया है पुलिस के मुताबिक अपहरण के आरोप में गिरफ़्तार तीन अभियुक्तों ने कहा है कि उन्होंने पत्रकार की हत्या के बाद उनका शव जला दिया है बालाघाट के कटंगी के निवासी 44 वर्षीय संदीप कोठारी का 19 जून की रात को अपहरण कर लिया गया था उनके परिवार ने 20 जून को उनके लापता होने की रिपोर्ट दर्ज कराई थी कटंगी के एसडीओपी जगन्नाथ मरकाम ने बताया, “हमने इस मामले में एक टीम नागपुर भेजी है ताकि बताए हुए स्थान से लाश को बरामद किया जा सके"

लेकिन जहाँ यह मामला पत्रकारों की हत्या का है वहीं यह मामला कानून एवं व्यवस्था का भी है, इस पहलु से जब हम ग़ौर करते हैं तो यह एक गंभीर मसला बन जाता है इसलिए जहाँ एक तरफ कानून एवं व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त करने की होनी चाहिए वहीं जनता को भी इस तरह के मामलों में अपना विरोध दर्ज कराना चाहिए क्यों की अत्याचार कहीं भी हो और किसी के भी साथ ग़लत है, और यह प्रक्रिया अत्याचार दमन को बढ़ावा देने का ज़रिए बनता है। नतीजे में ज़ुल्म ज़्यादती में वृद्धि होती है। और यह स्थिति ना देशवासियों के हित में, ना समाज के हित में उपयोगी हो सकती है, बल्कि विश्व स्तर पर देश की छवि खराब करने का साधन भी  बनेगी। इसलिए कानून के दायरे में रहते हुए और शांति बनाए रखते हुए ऐसे सभी मामलों में आवाज उठाना हमारा हक़ है, और इस हक़ को छीनने का किसी को भी अधिकार नहीं है। इस अवसर पर हम ना केवल जोगेन्द्र सिंह, उसके परिवारवालों के साथ हैं बल्कि हम उन सभी साहसी पत्रकार के साथ हैं जो समाज में बढ़ते भ्रष्टाचार और बुराइयों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं।
  
 =========================================================



मोहम्मद आसिफ इक़बाल, नई दिल्ली

जनता परिवार, क्या स्थापित हो पाएगा ?


सफर रिक्शा से किया जाये या बस कार और रेल से, सफर के बीच में कई सारे दर्शय हमारी आँखों से गुज़रते हैं कभी ऐसा होता है की हम इन दर्शयो को सरसरी तौर पे देख कर गुज़र जाते हैं, कभी वो हमे प्रभावित करते हैं, कभी हमारी सोच और कर्म को झनजोड़ते हैं और कभी ऐसा भी होता है की हम बिलकुल ही उन्हें नज़रअंदाज़ कर देते हैं अधिकतर लोगो के साथ नज़रअंदाज़ या उसपर ध्यान न देने का ही रवैया सामने आता है फिर जिस तरह सफर के बीच में बेशुमार दर्शय हमें देखने को मिलते हैं और कोई न कोई रिएक्शन हम करने को मजबूर हो जाते हैठीक उसी प्रकार जीवन में होने वाली घटनाएं हमारे मस्तिष्क, काम काज और सोच पर असर डालती हैं ये अलग बात है की सफर के बीच में देखे गए नज़ारो की हमें जिस तरह नज़रअंदाज़ करने की आदत पढ़ चुकी होती है, कुछ उसी तरह ज़िन्दगी के अलग अलग रास्ते पे होने वाली घटनाएं और तरह तरह की निशानिया और ऐतिहासिक घटनाएं भी हमें कुछ करने को उभरती नही हैंऔर हम अपनी ज़िन्दगी को जीते चले जाते हैंऔर एक ख़ास समय गुजरने के बाद फिर ये कसक बाक़ी रह जाती है की काश उस अहम दौर में हम कुछ ऐसा कर लेते, जबकि हमारे इरादे भी मज़बूत थे और हमारे अंदर क्षमताये भी थीं ! लेकिन ये समय ऐसा होता है की जब क्षमताये मांद पढ़ जाती हैं,  इरादे कमज़ोर होचुके होते हैं और अनुभव व इच्छाओ के अलावा जीवन में कुछ बचता नही है इसके बावजूद अकलमंद इंसान वही है जो समय से पहले अपनी इच्छाओ को सही दिशा दे, अपनी क्षमताओ को पहचाने, उनका विकास करे और अपनी सोच को सही दिशा दे, ताकि जीवन के ऊचे नीचे रास्ते पर होने वाली घटनाओ पे सोचे, समझे और सही समय पर व्यक्तिगत और सामूहिक संघर्ष को रूप दे

शुरूआती बातचीत के बाद पिछले दिनों इस प्यारे देश भारत में होने वाले लोकसभा इलेक्शन और उसके नतीजे पे एक दर्ष्टि डालते हैं तो संचारो पर दर्ष्टि रखने वाला व्यक्ति खूब जनता हैं की कुछ महीने पहले लोकसभा एलकेशन और उसके नतीजे से देश में कोई अगर सब से ज़्यादा चिंतित था तो वो देश के  अल्पसंख्यक थे और ये सच्चाई भी खूब सामने आ चुकी है की देश की अल्पसंख्यको की ये चिंता बेवजह नही थी क्योकि जिस तरह एक साल के अंदर ही इस महान देश भारत में अल्पसंख्यको के साथ जो बर्ताव किया गया है वो कोई ढकी छुपी बात नही उनके खिलाफ खुले आम नकारात्मक ब्यानबाज़िया की गईं  और ये ब्यानबाज़िया आज भी जोर-शोर से जारी हैंविभिन्न मुद्दो के नाम से जैसे कभी घर-वापसी के नारे सामने आते हैं तो कभी अल्पसंख्यको के खिलाफ बहुसंख्यको को एक जुट करने के नाम पर नारे लगाये जाते हैं, कभी इस देश में रहने वालो को हिन्दू कहने का मामला उठाया जाता है तो कभी कानून में बदलाव करके मज़हब बदलने के खिलाफ मोर्चा खोलने की बात कही जाती है, कभी नसबंदी करवाये जाने के धमकी भरे ब्यान सामने आते हैं तो कभी वोट देने के अधिकार को खत्म करने की बात कही जाती है और इन तमाम ब्यान के साथ साथ विशेष वर्ग के धार्मिक स्थलों की बेइज़्ज़ती की घटनाएं ये वह बाते हैं जिनका अंदाजा किसी हद तक देश की 60% वोटिंग का 31% हासिल करने वालो की सत्ता पर आते ही समय हो गया था इसके बावजूद कुछ मासूम और नादान ऐसे भी थे जिन्होंने कुल आबादी के 15% से 18% वोट हासिल करने वालों से बहुत सी सकारात्मक उम्मीदे लगा रखी थींऔर शायद वो उम्मीदे इस बुनियाद पे थीं की जब कोई देश का प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री और कोई सवैधानिक ज़िम्मेदारी पर चुना जाता है तो वो न सिर्फ अपनी पार्टी या अपने वोटर का बल्कि पुरे देश का ज़िम्मेदार हो जाता है। साथ ही उसकी ज़िम्मेदारी होती है की वो पुरे देश के नागरिको के लिए पालिसी और प्रोग्राम बनाये, साथ ही पालिसी और प्रोग्राम के पालन में रुकावट बनने वाले गरोहों और व्यक्तियों पर शिकंजा कसे। लेकिन अखबार, मैगज़ीन एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पढ़ने-सुनने से ऐसा महसूस होता है की इस मामले में कुछ कोशिशें भी की गईं इसके बावजूद वास्तविकता ये है की जमीन पर कोई ऐसी गवाही या सच्चाई नहीं मिलती जो सुनी और देखी बातों पर यकीन में मदद करे

पिछले दिनों जब देश में लोकसभा चुनाव के परिणामों ने कमजोर वर्गों तथा अल्पसंख्यकों को चिंता के घेरे में लिया हुआ था। उस समय एक लेख "भारत का बदलता राजनीतिक परिदृश्य" के अंतिम पैराग्राफ में हम ने लिखा था किइस समय मुसलमानों पर जो ख़ास कर 16 मई के बाद एक संघर्ष में मुब्तिला हैं तो आप का यह व्यवहार आपकी हैसियत के लिहाज़ से मुनासिब नही है यह अलग बात है की हम अपनी हैसियत से आज खुद भी परिचित नहीं हैं लेकिन जिस तरह से हारे हुए लोगो और पार्टियो ने अपनी हार का ठीकरा मुसलमानो के सर फोड़ने की कोशिश की है और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन पर इस का इलज़ाम रखा है वह सही नही हैवहीँ खुद मुसलमान भी मुस्लिम संगठनों के नेताओं, विद्वानों और उल्माए कराम के फैसलों को बुरा भला कह रहे हैं अब सवाल ये पैदा होता है की नाकामी आपकी हुई है या उन सियासी पार्टियो के लीडरो की जिन की रोज़ी रोटी ही आपके द्वारा पहुँचती है पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में जब आप ने भरपूर बहुमत के साथ एक पार्टी को कामयाब किया था तब आप को क्या फायदा पहुंचा? सच तो ये है की प्रदेश में कामयाबी के साल दो साल भी न गुज़रे थे की लगभग सौ से ज़्यादा दंगो ने अपनी लपेट में ले लिया और अब जबकि वह (लोक सभा चुनाव में) हार चुके हैं तो क्या ऐसा बड़ा नुक्सान होने वाला है जिससे आज तक आप दो-चार नही हुए हैं? सच तो यह है बंटे वे हैं और उन्ही के कुछ बुरे अमाल ने उन्हें रुस्वा भी किया हैइस से आगे बढ़ें तो मालूम होता है की वह न सिर्फ अपनी गलतियों का अंदाजा कर चुके है बल्कि व्यवहार में बदलाव भी लाना चाहते हैयही वजह है की आज बिहार का राजनीतिक परिदृश्य बदल रहा है उम्मीद है की उन गलतियों को सुधरने के नतीजे में 2015 के आखरी तक होने वाले इलेक्शन में आपको अपने स्टैंड पर बने रहने के बावजूद नतीजों में बड़ी तब्दीली सामने आएगी याद रखे मुल्क का राजनीतिक परिदृश्य पिछले 70 साल से लगातार तब्दील होता रहा हैलेकिन कामयाबी उन्हीं को मिली है जो लोग असफलताओं के बाद भी अपने स्टैंड पर जमे रहें, हौसले बुलंद रखें, रणनीति में बदलाव लाएं और उपलब्धियों के सुराग खोजते रहे

इस एक उद्धरण की रोशनी में मौजूदा हालात की अगर समीक्षा की जाए तो ये बात अच्छी तरह से सामने आ जाती है की इस समय जिस तरसह देश की 6 राजनैतिक पार्टिया जनतादल (यूनाइटेड), रजद ,समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, जनतादल (सेक्युलर), समाज वादी जनता पार्टी, सब मिलकर एक नयी पार्टी के गठन का एलान करती नज़र आ रही है दरअसल ये उसी विफलता की पहचान है जिसकी वजह कल आप नही बालकः यह खुद थे एक जमाने में यह सभी दल और उसके प्रमुख "जनतादल" का हिस्सा रहे हैंजो वर्ष 1988 में अस्तित्व में आया था उसी हिसाब से इसे 'जनता परिवार' के नाम से भी जाना जाता है

1988 में जनतादल कांग्रेस के खिलाफ अस्तित्व में आया था, तब इसे भाजपा का साथ मिला था लेकिन आज उसी जनता-परीवार के गठबंधन की सभी कोशिशें भाजपा के खिलाफ हैं और कांग्रेस का साथ मिलता दिखाई दे रहा है। इसके साथ ही जहां भारतीय राजनीति का एक दौर पूरा हो रहा है, वहीं एक नए युग की शुरुआत भी हो चुकी है। अस्तित्व को बनाए रखने के प्रयास और संघर्ष में "जनता-परिवार" का बहुत हद तक गठन हो चुका है। इसके बावजूद देखना यह है कि इसको तोड़ने, और विफल बनाने में लगे लोग कहां तक सफल होते हैं। वहीं दूसरी ओर यह भी देखना होगा कि आप अपनी पहचान और मददों को उठाने में किस हद तक कामयाब होते हैं। इसके लिए जहां आपकी व्यावहारिक भागीदारी आवश्यक है वहीं रंग,नस्ल और जाति,समुदाय से ऊपर उठकर मानवीय बुन्यादों पर सच्चे शुभचिंतक के रूप देश और देशवासियों के लिए मैदान में आना होगा। 

vvvvvvv


PUBLISHED AT: http://www.democracy4people.com/%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%B5%E0%A4%9C%E0%A5%82%E0%A4%A6-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%BE/
 =========================================================

छोटी गलती पर बड़ी पकड़ नहीं होनी चाहिए


 

देश की राजधानी दिल्ली फ़िलहाल सियासी पार्टियों और उनके प्रत्याशियों का अखाड़ा बनी हुई है। हर तरफ शोर-शराबा, जलसे-जुलूस, भाषण और घोषणाएं हैं जिन्होंने दिल्ली में एक विचित्र माहौल पैदा कर दिया है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली में पहली बार चुनाव होने जा रहे हैं। इसके बावजूद देश की दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां, सत्तारूढ़ भाजपा और पिछले पंद्रह साल दिल्ली में  सरकार में रहने वाली कांग्रेस, दोनों ही कुछ परेशान-परेशान दिख रही हैं। और और इन दो सबसे बड़ी राजनीतिक दलों की परेशानी दिल्ली वाले पहली बार महसूस भी कर रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में अगर पिछले चुनाव वर्ष 2013 को याद किया जाए, तो उस समय भी दिल्ली में राजनीतिक बिसात बिछी थी, और उस समय भी यह राजनीतिक दल एक दूसरे के सामने थे, इसके बावजूद न उस समय इतनी अधिक परेशानी दिखाई दी थी और न ही इतना हो-हल्ला। फिर ऐसा क्या हुआ कि कुछ महीने बाद उसी शहर दिल्ली में जहां एक लम्बे समय से कांग्रेस और भाजपा सत्ता की अदला-बदली का खेल खेल रही थी, वह आज एक दूसरे का सहारा बनती दिख रही हैं। न कांग्रेस भाजपा के खिलाफ बहुत खुलकर सामने आ रही है और न ही भाजपा कांग्रेस मुक्त दिल्ली का नारा देती दिखती है। दिल्ली वही, दिल्ली वाले वही, इसके बावजूद एक बड़ा परिवर्तन है, जो करीब से भी और दूर से भी सबको बहुत अच्छी तरह नज़र आ रहा है। कारण ? जग ज़ाहिर है। 2013 में एक नई राजनीतिक दल, आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में हिस्सा लिया। उस समय ना लोगों को, ना भाजपा को, ना कांग्रेस और ना ही खुद उस पार्टी और उसके प्रतिनिधियों को ही यक़ीन था कि वह दिल्ली की राजनीति में एक बड़ी तबदीली का माध्यम बन जाएंगे। इसलिए उस समय माहौल शांत था, कांग्रेस अपने हिस्से से अधिक सरकार कर चुकी थी, इसलिए उसे कोई खास चिंता नहीं थी। भाजपा अपनी बारी लेने के लिए तैयार थी। लेकिन समस्या तब पैदा हुई, जब कांग्रेस को उम्मीद से बहुत काम और भाजपा को अपनी बारी आने में आम आदमी पार्टी के सफल प्रत्याशियों के रूप में समस्याएं खुलकर सामने आ गईं। फिर क्या था। रहस्य उजागर हो गया। दिल्ली वाले परिवर्तन चाहते थे, वे ना कांग्रेस पर अंधा विश्वास रखते हैं और न भाजपा से कोई विशेष संबंध। और अब चूंकि प्रतिद्वंद्वी खुलकर सामने आ चुका है, तो क्यों न लोकतांत्रिक व्यवस्था में शक्ति, धन, संसाधन और कैडर, जो कुछ भी हो वह सब दाव पर लगा दिया जाए।


लोकतंत्र के कई गुण हैं और उन्हीं गुणों में यह भी है कि सार्वजनिक प्रतिनिधि जो जनता द्वारा चुने जाते है, वे चाहे कितने ही दागी क्यों न हों, जनता उनके पक्ष में और उनके खिलाफ फैसला करने की हकदार हैं। लेकिन कल्पना करें एक ऐसे लोकतंत्र की, जहां हर तरफ बड़ी संख्या में आपराधिक चरित्र वाले और दागी उम्मीदवार मौजूद हों, ऐसे लोकतंत्र में जनता अपनी पसंद और ना पसंद का कैसे निर्णय लेगी ? संभव है कभी जनता यह देखे कि कम दागी कौन है ? तो कभी क्षेत्र और जाति के आधार पर पसंद और नापसंद फैसला हो, तो यह भी संभव है कि पसंद कोई हो ही नहीं, कुछ नोट और कुछ शराब की बोतलें, उम्मीदवार की सफलता का स्रोत बन जाएँ उम्मीदवार की सफलता का कारण कोई भी हो लेकिन यह लोकतंत्र ही की खूबी है कि वे राज्य को एक स्थिर सरकार प्रदान करता है। ठीक उसी पृष्ठभूमि में आइए देखें दिल्ली विधानसभा चुनाव के प्रतिनिधियों की प्रोफाइल क्या कहती है ? दिल्ली इलेक्शन वाच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म ने विधानसभा चुनाव में उतरे 673 उम्मीदवारों द्वारा नामांकन पत्र दाखिल करने के दौरान दिए गए शपथ नामों के आधार पर रिपोर्ट जारी की है। जिसमें 673 उम्मीदवारों की वित्तीय, आपराधिक और अन्य विवरण का विश्लेषण किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार चुनाव में भाग लेने वाले कुल 673 उम्मीदवारों में से 117 ऐसे हैं जिनके खिलाफ अलग-अलग थानों में आपराधिक मामले दर्ज हैं। 74 प्रत्याशियों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 8 उम्मीदवारों ने अपने ऊपर महिलाओं पर अत्याचार ढाने से संबंधित मामले की जानकारी शपथपत्र में दी है। एक उम्मीदवार ने अपने ऊपर हत्या और 5 उम्मीदवारों ने अपने ऊपर हत्या के प्रयास से संबंधित मामले दर्ज होने की घोषणा की है। वहीं दूसरी ओर राजनीतिक दलों की बात की जाए तो भाजपा के कुल 69 उम्मीदवारों मैं से 27 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। जिनमें 17 उम्मीदवार ऐसे हैं जिनके खिलाफ गंभीर मामले दर्ज हैं। आम आदमी पार्टी के कुल 70 उम्मीदवारों में से 23 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें 14 उम्मीदवार ऐसे हैं जिनके खिलाफ गंभीर धाराओं के तहत मामले दर्ज हैं। कांग्रेस के कुल 70 में से 21 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें 11 उम्मीदवार ऐसे हैं जिनके खिलाफ गंभीर मामलों दर्ज हैं। यह वह स्थिति है जिसके होते हुए हम अपना प्रतिनिधि 'अपनी पसनद से' तय करेंगे, और यही खूबी लोकतंत्र के अस्तित्व की पहचान भी है।


दिल्ली विधानसभा के वर्तमान चुनाव ही के पृष्ठभूमि में कुछ समाचार, जो पिछले कुछ दिनों में सामने आए हैं, आइए उन पर भी नजर डालते चलें, ताकि अपनी पसंद की सरकार और अपनी पसंद के प्रतिनिधि तय करने में आसानी हो। पहली खबर, लालू प्रसाद यादव द्वारा किया जाने वाला कटाक्ष है। लालू यादव अपने ट्विटर पर लिखते हैं: देश को 100 रुपये की गंजा-लुंगी वाला नेता चाहिए या 10 लाख रुपये का सूट पहनने वाला ? पहचान कपड़ों से नहीं बल्कि काम से होती है साहब। इसके साथ ही लालू ने प्रधानमंत्री मोदी और अपनी तीनों तस्वीरें ट्विटर पर अपलोड की हैं। प्रधानमंत्री मोदी की तीनों तस्वीरें उनके नाम लिखे हुए सूट में हैं। दूसरी खबर मायावती से संबंधित है। जिसमें उन्होंने कहा है कि नरेंद्र मोदी सपना दिखा रहे हैं, चुनावों से पहले भ्रष्टाचार मिटाने, विदेशों से देश का काला धन वापस लाने, और हर गरीब परिवार के खाते में 15-15 लाख रुपये डालने की बात कही थी। लेकिन आठ महीने बीतने के बाद भी ना तो काला धन वापस आया, ना ही गरीबों को रुपये मिले और अन्य वादे भी पूरे नहीं कए तीसरी खबर गणतंत्र दिवस के विज्ञापन में शब्द 'धर्मनिरपेक्ष' 'सोशलसट का है। साथ ही राज्यसभा कैलेंडर से भी इन शब्दों के गायब होने की खबर है। सरकार की ओर से वर्णनात्मक बयान में कहा गया है कि चूंकि यह हाथ से बनाया गया दस्तावेज है, जिसमें ये दोनों शब्द नहीं हैं। और इसी तरह साल 1950 में भी, संविधान में ये दोनों शब्द नहीं थे, यह 42 संशोधन द्वारा आपातकाल के समय शामिल किए गए थे। और अंतिम खबर यह है कि जन लोकपाल बिल के लिए देशव्यापी स्तर पर आंदोलन चलाने वाले बुजुर्ग व सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे, कांग्रेस पार्टी और आम आदमी पार्टी के नेता केजरीवाल का मजाक उड़ाने वाला विज्ञापन भाजपा द्वारा प्रकाशित किया गया है जिसमें लिखा है: सत्ता के लिए बच्चों की झूठी कसम तक खाउंगा और रात दिन ईमानदारी का डंका बजाउं जाएगा। उस पर आम आदमी पार्टी ने कड़ी आपत्ति जताई है। पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भाजपा के विज्ञापन पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि नाथूराम गोडसे ने गांधी जी को मारा था और भाजपा ने अन्ना हजारे को मार दिया।


दिल्ली की वर्तमान राजनीति और उसकी पृष्ठभूमि में कुछ मुख्य विशेषताएं तो सामने आ गईं। अब देखना यह है कि विधानसभा चुनाव क्या परिणाम देते हैं। परिणाम जो भी हो, लेकिन यह बात तय है कि दिल्ली के चुनाव यहां की सफलता और विफलता के प्रभाव आगामी दिनों बिहार और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों पर भी पड़ेंगे। यही कारण है कि एक तरफ सत्तारूढ़ भाजपा अपनी पूरी ताकत लगाए हुए है कि किसी तरह दिल्ली में वह बहुमत हासिल कर ले तो दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी भी संघर्ष में पीछे नहीं है। कांग्रेस को उम्मीद है कि इस बार वही पुराना रिजल्ट उनके पास आएगा। इस सब के बावजूद राजनीतिक दलों का कैडर और जनता कंफ्यूज है, लेकिन रुझान जो सामने आ रहा है वह बता रहा है कि आम आदमी पार्टी सरकार बनाने के करीब है। इस अवसर पर यह बात खूब अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि सरकार चाहे किसी की भी बने लेकिन विपक्ष भी मजबूत होना चाहिए। क्योंकि लोकतांत्रिक में एक मजबूत विपक्ष बहुत महत्व रखता है, और ऐसा न हो तो देश अराजकता का शिकार हो जाता है। वहीं दूसरी ओर अगर ऐसा हो कि एक नए शासन का वादा करने वाले, दिल्ली प्रदेश की बागडोर पूरे पांच साल समभालें, तो खुलकर उन्हें भी परखने का मौका मिल जाएगा। क्योंकि जो कल ही राजनीति में आए हों, उनकी गलतियों पर बड़ी पकड़ नहीं होनी चाहिए। पकड़ तो उनकी होनी चाहिए जो एक लंबे समय से राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करते हुए लोक कल्याण की बात करते हैं, इसके बावजूद वह कभी भी अपनी दुनिया संवारने से नहीं चूके !

 =========================================================

नसबंदी और पूर्व भ्रूण हत्या !


पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के इलाक़ा बलासपुर के पिंडर गावं में केंद्रीय परिवार नियोजन के प्रोग्राम के तहत नसबंदी कैंप लगाया गया। जिस में गावं वालों का इल्ज़ाम है कि सरकारी लक्ष्य पूरा करने की जल्दबाज़ी में सिर्फ़ छः घंटे के दौरान ही ज़िला अस्पताल के एक डाक्टर ने अपने एक साथी के साथ मिल कर 83 महिलाओं की नसबंदी कर दी। नसबंदी की जाने वाली महिलाएं कुछ ही घंटों में ज़िन्दगी व मौत में मुबतला हो गईं। अब तक सरकार के मुताबिक़ 15 महिलाएं अपनी जान खो चुकी हैं और शेष तकलीफ से दो-चार हैं। मरने वाली एक ख़ातून जानकी बाई के पति का कहना है कि नसबंदी से पहले दवा खाते ही कई महिलाओं को उलटी होने लगी थी लेकिन डाक्टर ने उन की तरफ़ तवज्जा नहीं दी, इस तरह औरतों की हालत बिगड़ती चली गई। वहीं दूसरी तरफ़ ऐन्टी बायोटिक दवा की प्रारंभिक जांच में चूहे मारने में इस्तिमाल होने वाला केमिकल पाया गया है।

यही नहीं दवा बनाने वाली कंपनी को दो साल पहले ब्लैकलिस्ट किया जा चुका था, मगर सरकार इस से अब भी दवाएं ख़रीद रही थी। ऐन्टी बायोटिक टेबलेट सपरोफ़लाकसीसन500 की जांच से पता चला है कि इस में ज़िंक फ़ासफ़ाइड मिला हुआ था। ये केमिकल चूहे मारने के लिए इस्तिमाल होता है। दुर्घटना के बाद स्थानीय नागरिकों और विरोधी दल कांग्रेस पार्टी के लोगों ने राज्य के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल की रिहायश बलासपुर में घेराबंदी की। वहीँ दूसरी तरफ सरकार ने कैंप में 83 से ज़्यादा महिलाओं का नसबंदी ऑप्रेशन करने वाले डाक्टर आर के गुप्ता और सी ऐम ऐचओ डाक्टर भागे को बरतरफ़ कर दिया।
वहीँ दूसरी तरफ हुकूमत की कार्रवाई से इंडियन मैडीकल एसोसीएशन नाराज़ है। असोसिएशन का इल्ज़ाम है कि ये पूरा मामला ख़राब दवाओं की सप्लाई का है लेकिन हुकूमत डाक्टरों के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर रही है। दूसरी तरफ़ राज्य के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल का कहना है कि वो नैतिक रूप से इस वाक़िया के लिए ज़िम्मेदार हैं। लेकिन साथ ही वह ये भी कहते हैं कि इस मुश्किल घड़ी में कांग्रेस पीड़ितों के दुख दूर करने में सहयोग के बजाय लाशों पर सियासत कर रही है।
नसबंदी का वाक़िया और इस में ग़ैर जिम्मेदाराना किरदार अदा करने वाले डाक्टर के ताल्लुक़ से सवाल ये नहीं है कि सत्तारूढ़ और विपक्ष का मामला किआ है। बल्कि हमारी समझ के मुताबिक़ इस अवसर पर अवश्य यह सवाल उठना चाहिए कि नसबंदी की ज़रूरत किसको है ? और क्यों ? और वो कौन से उद्देश्य हैं जिनके मद्देनजर परिवार नियोजन के यह और इस तरह के प्रोग्राम चलाए जाते हैं ? क्योंकि मामला परिवार नियोजन का नहीं है बल्कि मामला ये है कि ग़रीबों और जरूरतमंदों के अधिकार का किस तरह हनन किया जाऐ। महिलाओं पर जारी उत्पीड़न को कैसे जारी रखा जाऐ। और वो आदरणीय महिला जिस को आज समाज ने अपमानजनक स्थान दिया है, वह किस तरह बाक़ी रहे। और अगर ऐसा नहीं है, तो फिर क्यों जन्म से पूर्व भ्रूण हत्या की घटनाएं तेज़ी से बढ़ती जा रही हैं? क्यों महिलाओं की मान-सम्मान चोट जा रहा है और क्यों महिला उत्पिरण में इज़ाफ़ा हो रहा है? साथ ही हमें यह भी पता चलना चाहिये कह क्यों "सभ्य दुनिया" के व्यापारी महिलाओं को बाज़ार में एक बिक्री की जाने वाली वस्तु के रूप में देखते और प्रयोग करते हैं ? ये वो प्रश्न हैं जो इस घटना और इस पर जारी सियासत की बाआसानी नज़र तो हो सकते हैं लेकिन ना विपक्ष और ना ही सत्तारूढ़ इन सवालों का पोस्टमार्टम करेंगे और ना ही जांच की ओर कदम बढ़ाया जाएगा। लेकिन इस अवसर पर उन लोगों को अवश्य आकर्षित होना चाहिए जो या तो राजनीति से ख़ुद को ऊपर तर समझते हैं या वो लोग जो मूल्यों पर आधारित राजनीति के इच्छुक हैं। लेकिन अगर ये दोनों ही किस्म के लोग और समूह ख़ामोशी इख़तियार करते हैं तो फिर ये बात स्पष्ट हो जाएगी कि दरअसल भाषण विशेषज्ञ न्याय की स्थापना में गंभीर नहीं हैं।
दरअसल परिवार नियोजन का मक़सद नसल की रोकथाम है। प्राचीन समय में भी इस का अस्तित्व था। लेकिन उस ज़माने में ये आंदोलन ज़्यादा संगठित नहीं था।  प्राचीन समय में नसल की वृद्धि को रोकने के लिए गर्भपात , बच्चों की हत्या और ज़बत नफ़स के तरीक़े इख़तियार किए जाते थे। यूरोप में इस आंदोलन की शुरुआत आठारवीं सदी ईसवी के अख़िर में हुई। इस का पहला मुहर्रिक शायद इंग्लिस्तान का मशहूर अर्थशास्त्री Malthus था। इस के दौर में अंग्रेज़ी राष्ट्र की दिन बा दिन ख़ुशहाली की वजह से इंग्लिस्तान की आबादी तेज़ी के साथ बढ़नी शुरू हुई। इस ने हिसाब लगाया कि अगर नसल अपनी स्वाभाविक रफ़्तार के साथ बढ़ती रहे तो ज़मीन इस के लिए तंग हो जाइए गी, रोज़गार के संसाधन पुरे ना हो सकेंगे, इस लिए ज़रूरी है कि उस की आबादी को आगे ना बढ़ने दिया जाए, इस के लिए उस ने ब्रहम चर्च के पुराने तरीक़े राइज करने का सुझाव दिया, यानी बड़ी उम्र में शादी की जाए और वैवाहिक जीवन में ज़बत से काम लिया जाए। इन ख़्यालात का इज़हार इस ने अपने पत्रिका "आबादी और समाज के विकास पर इसके प्रभाव" में पेश किए थे। इस के बाद Frances Place ने नैतिक स्रोत छोड़कर दवाओं और उपकरण के ज़रीया से गर्भावस्था में रुकावट का सुझाव पेश किया। इस राय के समर्थन में 1833 में एक मशहूर डाक्टर चार्ल्स नौ लिटन ने पलास का समर्थन  किया और गर्भपात के चिकित्सक तरीक़ों की व्याख्या की और उनके फायदों पर ज़ोर दिया। उन्नीसवीं सदी के अंतिम तिमाही में एक नया आंदोलन उठा जो नौमालथी आंदोलन कहलाता है। 1877 में डाक्टर डरीसडल की अध्यक्षता मैं एक संगठन की स्थापना हुई। जिस ने गर्भावस्था में रुकावट  के समर्थन  में प्रसारण और प्रकाशन शुरू की। इस के दो साल बाद मिसिज़ सैंट की किताब "जनसंख्या कानून" प्रकाशित हुई। 1881 में ये आंदोलन, बेल्जियम, फ़्रांस और जर्मनी में पहुंचा और इस के बाद धीरे-धीरे यूरोप और अमरीका में फैल गया। इसके लिए संगठनों की स्थापना हुई जो ज़बत विलादत के लाभ और व्यावहारिक तरीक़ों से अवगत क्या करती थीं। दूसरी ओर भारत-पाक महाद्वीप में पिछली दशक से गर्भावस्था में रुकावट आन्दोलनों ने ज़ोर पकड़ा। 1931 के जनगणना के कमिशनर डाक्टर हटन ने अपनी रिपोर्ट में भारत की बढ़ती आबादी को ख़तरनाक ज़ाहिर करने के लिए गर्भावस्था में रुकावट के प्रचार पर ज़ोर दिया और कुछ ज़्यादा समय नहीं बीता था कि हिंदूस्तान ने इस आंदोलन को एक राष्ट्रीय नीति की हैसियत से इख़तियार कर लिया।

हालांकि परिवार नियोजन के मुताल्लिक़ दुनिया के तमाम धर्मों में स्पष्ट आदेश और रोक मौजूद नहीं है, लेकिन फिर भी हर एक धर्म में अधिक संतान होने की प्रेरणा की गई है। इस्लाम चूँकि सार्वभौमिक धर्म है इसलिए क़ुरआन हकीम में एक से ज़्यादा मुक़ाम पर अल्लाह ताला फ़रमाता है कि: "औलाद को गरीबी के डर से क़तल ना करो", इसी तरह इस्लामी विद्वान "अज़ल" के ताल्लुक़ से लिखते हैं कि उस की इजाज़त के मुताल्लिक़ जो रवायात हैं उन की हक़ीक़त बस ये है कि किसी अल्लाह के बंदे ने महिज़ अपनी मजबूरी और हालात बयान किए और आप सल्लाहो अलेहे वस्सलाम ने उस मसले को अपने सामने रख कर कोई मुनासिब जवाब दे दिया, उनका ताल्लुक़ सिर्फ़ व्यक्तिगत ज़रूरीयात और दुर्लभ स्थिति से था। गर्भावस्था में रुकावट  की आम दावत-ओ-तहरीक हरगिज़ पेशे नज़र ना थी। ना ऐसी आन्दोलनों का मख़सूस फ़लसफ़ा था जो अवाम में फैलाया जा रहा हो। अज़ल से मुताल्लिक़ जो बात आप से मनक़ूल हैं उन से अगर अज़ल का जवाज़ भी मिलता था तो हरगिज़ जनसंख्या नियंत्रण की इस आम के आंदोलन के हक़ मैं इस्तिमाल नहीं किया जा सकता, जिस की पीछे एक बाक़ायदा ,ख़ालिस भौतिकवादी फलसफा है। ऐसा कोई आंदोलन अगर आप सल्लाहो अलेहे वस्सलाम के सामने उठता तो यक़ीनन आप उसपर लानत भेजते। मौलाना मुफ़्ती मुहम्मद शफ़ी "ولا تقتلوا اولادکم خشیتہ املاق" (औलाद को गरीबी के डर से क़तल ना करो) के ताल्लुक़ से लिखते हैं: इस आयत-ए-करीमा से इस मामले पर भी रोशनी पड़ती है, जिस में आज की दुनिया गिरफ़्तार है

वो जनसंख्या बढ़ने के ख़ौफ़ से  रोगाणुनाशन, वंध्यीकरण और जनसंख्या नियंत्रण को रिवाज दे रही है, उस की बुनियाद भी इस जाहिलाना फलसफे पर है कि रिज़्क (खाना) का ज़िम्मेदार अपने को समझ लिया गया है, ये मामला भ्रूण हत्या के बराबर ना सही मगर इस के गलत होने में कोई संदेह नहीं है। तथ्य ये है कि नसबंदी हो या भ्रूण हत्या ये दोनों ही मामले समाज की इस ख़सताहाली को पेश करते हैं जिस में लड़की को एक बोझ समझा जाता है, लड़के से कम लड़की की स्थिति के कारण ही शादी के वक़्त बड़ी बड़ी रकमें जहेज़ की शक्ल में दी जाती हैं। जबकि समस्याओं के समाधान और नवजात बच्ची की जान की हिफ़ाज़त के लिए हुकूमत विभिन्न योजनाएं चला रही है, इस के बावजूद आंकड़े बताते हैं कि हिंदूस्तान में 1981 में जन्म से 6 साल की उम्र की बच्चों का औसत जो 1000: 962 था वो 1991 में 945 , 2001 में 927 और 2011 में 914 ही रह गया है। वास्तव में भ्रूण हत्या, नसबंदी और परिवार नियोजन का यह एक पहलू है। जबकि दूसरी तरफ़ इस के आर्थिक व सामाजिक, और नैतिक और संस्कृति खतरनाक प्रभाव क्या हैं ? अगर वो भी जान लिए जाएं जो ये हक़ीक़त पूरी तरह सामने अजाए गई कि इस नसबंदी के परिणाम में मुलक अज़ीज़ विकास और समृद्धि की और नहीं बल्कि गिरावट और संकट में में बुरी तरह घिरता जा रहा है। इस पूरी बातचीत के पृष्ठभूमि में ज़रूरत है कि हर दो पहलुओं से नसबंदी के वाक़िया को चर्चा का विषय बनाया जाए !

vvvvvvv






 =========================================================

m
अगर यही करना था तो अंशन का नाटक क्युं किया ?
m
चक्रव्यूह मैं घिरते हम और हमारा समाज
m
भारत मैं घूसखोरी
m
बहत्तर छेद और जातिवाद राजनीति!
m
सौभाग्य  इज्जत की रात!
m
m
अगर यही करना था तो अंशन का नाटक क्युं किया ?
m
कर चोर बाबा ?
m
मनी लांड्रिंग मामला और बालकृष्ण
बाबा यह सब किया हो रहा है !
m
कौन बेखर इंसानों को साही रास्ते पर लाएगा ?
m
m
उदारवाद और धर्मनिरपेक्षता



बेसबब देते हैं क्यों लोग म्बारकबादें !!
ए नए साल बता तुझ में नया क्या है?
हर तरफ खल्क में क्यों शोर बरपा है


रोशनी दिन वही तारों भरी रात वही
आज हम को नज़र आती है हर बात वही


आसमान बदला है अफसोस, न बदली है ज़मीं
एक हिन्दसे का बदलना कोई जिद्दत तो नहीं


अगले बरसों की तरह होंगे क़रीना तेरे
किसे मालूम नहीं बारह महीने तेरे


जनवरी, फरवरी और मार्च में परे सर्दी
और अप्रैल, मई, जून में होगी गर्मी


तेरा मन दहर मैं कुछ खोएगा कुछ पाएगा
अपनी मियाद बसर करके चला जाएगा


तू नया है तो दिखा सुबह नई शाम नई
वरना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई


बेसबब देते हैं क्यों लोग म्बारकबादें
ग़ालिबन भूल गए वक़त कि कड़वी यादें


तेरी आमद से घटी उम्र, जहाँ मैं सब कि
फ़ैज़ ने लिखी है यह नज़्म निराले ढब की


 =========================================================
महत्वपूर्ण प्रक्रिया !
व्यवस्था परिवर्तन और प्रणाली परिवर्तन
वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था अत्याचार शोषण को बढ़ावा देने में सहायक है , केवल व्यक्ति का शोषण इसकी पहचान है बल्कि समाज का मान जो कमज़ोर हो रहा है उसमें भी इसकी भरपूर भूमिका है और जो घटनाएं पिछले कुछ दिनों में देश के सामने आई हैं उन्होंने इस विचार को परिपक्वता दी है इन्हीं घटनाओं में जहां एक ओर सुप्रीम कोर्ट के रेटार्ड जज ने अपनी ही प्रशिक्षित महिला वकील पर यौन शोषण का गंभीर आरोप लगाया है, वहीं समाज के उद्धारकर्ता और पिछड़ी जातियों को बराबरी के अधिकार दिलाने वाले राजनीतिक नेता और सांसद धनंजय सिंह पर विधायक बनाने का लालच देकर अपने समर्थक की पत्नी के साथ बंदूक की नोक पर शारीरिक संबंध बनाने का आरोप है धार्मिक गुरु आसाराम और उसके बेटे पर यौन शोषण के आरोपों और अब भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाली "तहलका पत्रिका" के तेज तर्रार संपादक तरुण तेज पाल पर कार्यालय की जूनियर महिला पत्रकार ने यौन शोषण का जो आरोप लगाया है उसने पूरी पत्रकारिता को कठघरे में खड़ा कर दिया है और यह मामला इसलिए भी गंभीर और महतपूर्ण हो जाता है क्योंकि प्रभावित तरुण तेजपाल की बेटी की सहेली है इन परिस्थितियों में मुसलमान जिस स्थान पर और जिस रूप में भी देश में मौजूद हों, आवश्यक है कि हर व्यक्ति इस्लामी शिक्षाओं को न सिर्फ खुद समझे बल्कि  कर्म से परचार करे इस्लाम को शांति पूर्वक जीवन प्रणाली समझते होए उस के हर पहलू पर अमल की राहें खोजने के साथ साथ पूर्ण  सहयोग भी देऔर इच्छा की पूर्ति के लिए जरूरी है कि संगठित प्रयास और संघर्ष व्यक्ति करे इसलिए आज चहरे परिवर्तन होने कि बजाय व्यवस्था परिवर्तन और व्यक्ति में सुधार के बजाय प्रणाली परिवर्तन सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य प्रक्रिया है


 =========================================================
प्रतिमाओं का देश
THE NATION OF STATUES!

इतिहास के जिस महानतम दलित ने अपनी व्यक्ति पूजा पर सख्त ऐतराज जताया था और जनतांत्रिक मूल्यों में आस्था के कारण ही शताब्दी के सर्वाधिक प्रभावशील व्यक्तित्व की हत्या तक को लोगों की उस महामानव से मुक्ति के अवसर के रूप में देखा था। उस अंबेडकर ने शायद ही सोचा होगा कि उनके तथाकथित अनुयायी उनके विचारों का अनुगमन करना असुविधाजनक जानकर उन्हें केवल एक मूर्ति के रूप में स्थापित कर देंगे !

Dr. Ambedkar written in his book: “My father was a military officer, but at the same time a very religious person. He brought me up under a strict discipline. From my early age I found certain contradictions in my father's religious way of life. He was a Kabirpanthi, though his father was Ramanandi. As such, he did not believe in Murti Puja (Idol Worship), and yet he performed Ganapati Puja--of course for our sake, but I did not like it.”(THEBUDDHA  AND HIS DHAMMA  by Dr. B. R. Ambedkar)

 =========================================================
उदारवाद और धर्मनिरपेक्षता

मौजूदा दौर में दुनिया के विभिन्न देश दो बड़े विचारों के आक्रमण से पीड़ित हैं
इनमें एक उदारवाद है तो दूसरा धर्मनिरपेक्षता जरूरत है कि विचारों के आक्रमण का हर स्तर पर मुकाबला किया जाए ताकि जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों, धर्म, नैतिकता, समाज, शिक्षा, रोज़गार और राजनीति इस मानसिक अशांति से निकल कर मनुष्य को वास्तविक जीवन का पालन करने में सहायक हों तथा पूंजीवादी उपनिवेशवाद "उग्रवाद" और "आतंकवाद" जैसे गलत नारों की आड़ में आज जो खुलकर मासूम इंसानों का बड़े पैमाने पर शोषण कर रहे हैं  उस पर काबू पाया जा सके हालांकि साम्यवाद और समाजवाद की हार हो गई है इसके बावजूद दोनों सिद्धांत अपने मूल के लिहाज से असल विचार नहीं हैं बल्कि उदारवाद और धर्मनिरपेक्षता के ही केवल द्वितीयक हैं दुनिया का बड़ा क्षेत्र उदारवाद और धर्मनिरपेक्षता में बुरी तरह घिरा हुआ है स्थिति यह है कि एक ओर देशों के अधिकांश शासक अपने हितों की खातिर पश्चिमी शक्तियों के सहायक हैं वहीं दूसरी ओर मुसलमानों का बहुमत उदारवाद और धर्मनिरपेक्षता को न समझने के कारण इस लड़ाई को एक गोमगो की स्थिति में देख रहा है उदारवाद और धर्मनिरपेक्षता के अलमबरदार मुस्लिम देशों के नागरिकों को धोखे में रखे हुए हैं ये लोग भगवान, दूत, कुरान और इस्लाम का नाम लेते हैं मगर व्यावहारिक जीवन में इस्लामी शिक्षाओं को लागू होने से बिदकते हैं इन लोगों का कहना है कि एक आदमी एक समय में मुसलमान और धर्मनिरपेक्ष या उदार हो सकता है वे राजनीतिक, साहित्यिक , पत्रकारिता और सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रभाव रखते हैं और मीडिया और सरकारी संसाधनों का उपयोग करते हुए खामोशी के साथ समाज के सभी क्षेत्रों से भगवान और धार्मिक शिक्षाओं को बेदखल करने के लिए प्रयासरत हैं धर्मनिरपेक्षता की संरचना के अनुरूप यह धर्मनिरपेक्ष शासक या ज्ञान पेशेवर मुसलमानों के विश्वास, पूजा के तरीकों का विरोध नहीं करते बल्कि खुद भी उन्हें धारण करके लोगों को अपने बारे में पक्के मुसलमान होने का विश्वास दिलाते हैं और जनता उनसे धोखा खा जाते हैं। इन परिस्थितियों में आवश्यक है कि उदारवाद और धर्मनिरपेक्षता को समझा जाए और उसके बुरे प्रभाव से स्वयं और दुनिया को बचाया जाए।



 =========================================================

नारी स्वतंत्रता
देखना यह चाहिए कि विभिन्न धर्मों और संस्कृति से जुड़ी औरत अपने व्यवहार में परिवर्तन क्यों नहीं ला रही है। क्या उसका भी कोई उचित कारण है? पता चला कि एक तरफ औरत को बाजार में सिर आम अपमानित किया जाता है तो वहीं दूसरी ओर घरों में लड़के और लड़कियों में भेदभाव किया जाता है। विभिन्न अंदाज में हर स्थान पर मर्द हज़रात उनका आत्मसम्मान करते हैं। कभी पति व अन्य रिश्तेदारों द्वारा अपमान का सामना करना पड़ता है जो जानवरों से भी बढ़कर न केवल उन पर अत्याचार व शोषण करते हैं बल्कि मामुलि दहेज कि खातिर उन्हें जीवित जला देने तक से परहेज नहीं करते। यह और इन जैसे अत्याचार और ज़्यादतियों की घटनाएँ ही असल में वह पृष्ठभूमि है जो औरत को स्वतंत्रता के नारोंको पसंद करने पर मजबूर कर देते हैं। फिर नारों की आड़ में कहीं समय की मारी हुई तो कहीं सम्मान व अपमान से अनभिज्ञ औरत उन सभी मामलों को इखतियार करना ही मस्ले का हाल समझती है जो आज प्रचलित हैं। इन हालात में सवाल यह पेदा होता है कि इन सब मामलात का ज़िम्मेदार कौन है।

 =========================================================
चर्चा हसन और हुसैन: सुधार के लिए
जिस तरह मानव के दौड़ते भागते जीवन के लिए आवश्यक है कि उसे भरपूर भोजन मिलता रहे ठीक इसी तरह एक मुसलमान के धर्म, उसकी विचारधारा, उसकी गतिविधियों और उसके कार्यों को सही दिशा में रखने के लिए आवश्यक है कि वह विश्वास मैं बढ़होत्री करने वाले भोजन का उपयोग करता रहे जो उसे समय समय पर मजबूती पहुंचाने वाली है यह इमानी गीज़ा उसी वकात हासिल हो सकती है जब कह उसका खास ख़याल रख्खा जाए इसके लिए जहां दिन में पांच बार अल्लाह के सामने उपस्थिति एक स्रोत है तो वहीं अल्लाह का ज़िक्र और इबादत को हर पल बजा लाना भी सहायक साबित होता है यह अह्तिमाम बंदा मोमिन को खुशी और गम के हर अवसर पर करना चाहिएया और वह महान उद्देश्य है जिसकी तरफ इमाम हुसैन की शहादत हमारा मार्गदर्शन करती है



 =========================================================

भगवान किसका ?

भारत वह देश है जहां विभिन्न विश्वास रखने वाले लोग विधमान हैं. इसके बावजूद वे परस्पर मिलजुल कर रहते हैं और यही इस देश की सराहनीय विशेषता है. लेकिन कभी कभी ऐसी दुर्घटनाएं भी सामने आती हैं जो प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देती हैं. ऐसा नहीं है कि यह घटना अचानक उत्पन्न होती है, बल्कि उनका प्राचीन पृष्ठभूमि है. इसी प्रकार की एक घटना झुंझुनूं में खेतड़ी थाना क्षेत्र के बड़ाऊ गांव का है. जहां दलित जाति के दो नवविवाहित जोड़ों को मंदिर से धक्केमार कर बाहर निकालने का मामला प्रकाश में आया है। पीड़ितों का आरोप है कि विरोध करने पर उनके साथ गाली गलौच भी किया गया. इस संबंध में मंदिर के पुचारी एवं तीन महिलाओं सहित 8 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। पुलिस ने बताया कि बड़ाउ गांव का निवासी अशोक कुमार मीघवाल और छोटे भाई गुलाब की बारात माधव गढ़ गई थी. 25 अक्तूबर को वे शादी कर के लौटे 26 अक्तूबर की सुबह लगभग 10 बजे दोनों नवविवाहित जोड़े धोक लगाने गांव के मंदिर गए। मंदिर में पुजारी घीसाराम स्वामी सहित कुछ लोगों ने उनको पूजा अर्चना करने से रोका. नवविवाहित जोड़ों और उनके साथ आए लोगों ने जब इस बात का विरोद्ध किया तो पुजारी और अन्य लोगों ने उनके साथ गाली गलौच की और धक्के मार कर मंदिर से बाहर निकाल दिया।
रविवार रात इस सिलसिले में पीड़ित अशोक कुमार मेघवाल ने मंदिर के पुजारी घीसाराम स्वामी, गंगा स्वामी, अनिल स्वामी, पप्पू शर्मा तथा सियाराम स्वामी के साथ ही महिलाओं के खिलाफ मामला दर्ज कराया. इस मामले में फिलहाल किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है. पुलिस मामले की जांच कर रही है.

घटना की पृष्ठभूमि में यह बड़ा सवाल उठता है कि मंदिरों में "भगवान" किसके हैं? मानव के या विशेष वर्ग के? जब आस्था द्वार आप हिंदू हैं और वह भी जिनको धक्के मार कर बाहर किया जा रहा है तो ऐसा मआमला क्यों ? पता यह चला कि यह "भगवान" हिंदुओं के नहीं बल्कि विशेष जाति के हैं जो दिन रात उनकी सेवा में लगे रहते हैं. जिनको चाहें पूजा करने की अनुमति दें और जिनको चाहें पूजा करने से रोक दें।

ऐसी ही स्थिति में इस्लाम की ज़रूरत महसूस होती है जो यह नारा देता है कि प्रत्येक मानव का पैदा करने वाला एक है और एक ही माता पिता से सब की रचना हुई है। ईश्वर भी एक और माता पिता भी एक...तो फिर जातिवाद क्यों कर। इस्लाम सारे संसार का धर्म है जहाँ कोई भेदभाव नहीं। जो हर प्रकार के जातिवाद का खंडन करता है। जो इनसान के माथा का भी सम्मान करता है कि इसे मात्र अपने रचयिता और पालनकर्ता के सामने टेका जाए किसी अन्य के सामने नहीं।   



 =========================================================



कौन बेखर इंसानों को सही रास्ते पर लाएगा?
कुछ लोग बद प्रक्रिया बद अख़लाक़ बद किरदार बद संस्कृति बद दयानत और बद दिमाग हुआ करते हैं और चाहते हैं दूसरे भी उन्हीं जेसे हो जाएँ या नहीं भी तो कम से कम उनके बुरे कर्मों पर पकड़ ना करें ऐसे मामले रोज़ उत्पन्न होते रहते हैं वाह लोग जो इन बद किरदारों की बद किर्दारियों से प्रभावित होते हैं वह कभी आवाज़ उठाते हैं और कभी चुप रहते हैं आवाज़ उठाने पर यह लरज़ने और कांपने लगते लेकिन चुप्पी पर अपने बुरे कर्मों मैं स्वाद महसूस करते हैं और उनके हौसले और बढ़ जाते हैं लोगों का दिल तोड़ना और उन पर विभिन्न तरीकों से ज़ुल्म व सितम करना उनके लिए और भी आसान हो जाता है यह गुंडा तत्व जितने बड़े पैमाने पर गुंडागर्दी  करते हैं इसी श्रेणी के गुंडे कहलाते हैं वर्तमान मैं दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों मैं यह समूह मौजूद हैं जो अपने नापाक इरादों पर योजनाबद्ध ढंग से काम कर रहे हैं और एक वर्ग है जो हर स्थान पर उनके अत्याचार का शिकार है यही वह लोग हैं जो सामाजिक बिगाड़ की असल जड़ हैं इसके विपरीत वह देश और समाज को सुधारने का ज़िम्मा अपने सिर लिए हुए हैं और एक भीड़ है जो जानवरों के रेवड़ की तरह उनके हानकने पर दौड़े चले जा रहे हैं वह कहाँ जा रहे हैं? और कौन लोग उनको हानक रहे हैं यह उससे बेखबर हैं सवाल यह उठता है कि कौन उन बेखर इंसानों को सही रास्ते पर लाएगा? वह जो खुद ही बेखबर हैं? या वह जो खबर रखने के बाद भी बेखबरी के आलम मैं गहरी नींद सोइए हुए हैं? वह जो अनपढ़, जाहिल और अपने कर्मों की वजह से बेवजन हैं? कौन? कौन उन लोगों के बहकावे मैं आए लोगों को सही रस्ते पर लाएगा? यह सवाल है जिसका जवाब दूसरों से पहले स्वयं से प्राप्त करना चाहिए शायद कि जवाब भी मिल जाए और शायद कि अपमान भी कुछ कम हो जाए!



 =========================================================


मनी लांड्रिंग मामला और बालकृष्ण
बाबा यह सब किया हो रहा है !
फर्जी दस्तावेजों के सहारे पासपोर्ट हासिल करने के मामले में फंसे बाबा रामदेव के विश्वस्त सहयोगी बालकृष्ण पर अब प्रवर्तन निदेशालय ने मनी लांड्रिंग का मामला दर्ज किया है। जल्द ही उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है। आरोप है कि बालकृष्ण ने फर्जी पासपोर्ट के सहारे विदेशों में जाकर वहां कई ट्रस्ट बनाए और करोड़ों रुपये जमा किए।
गौरतलब है कि पिछले साल जुलाई में सीबीआइ ने फर्जी दस्तावेजों के सहारे पासपोर्ट बनवाने के मामले में बालकृष्ण के खिलाफ एफआइआर दर्ज की थी। वह काफी दिनों तक जेल में बंद रहे। गत 17 अगस्त को उन्हें जमानत मिली थी। ईडी को जानकारी मिली है कि विदेशों में रामदेव व बालकृष्ण के कई ट्रस्ट हैं और इसमें करोड़ों रुपये जमा हैं।
पासपोर्ट एक्ट का उल्लंघन मनी लांड्रिंग के तहत अपराधों की सूची में शामिल है। चूंकि बालकृष्ण का पासपोर्ट अवैध है, इसलिए कानून के तहत उनके ट्रस्ट में जमा पैसे भी अवैध हैं। इसी आधार पर ईडी ने मनी लांड्रिंग रोकने के कानून पीएनएलए एक्ट के अंतर्गत उन पर मुकदमा दर्ज किया है। इसके तहत विदेशों में जमा किए गए पैसे को जब्त किया जा सकता है। आरोप साबित होने पर बालकृष्ण को सात साल जेल की सजा हो सकती है।
इससे पहले हमने कहा था की बाबा सदवे कर चोरी मैं आने वाले हें और अब यह एक के बाद एक बाबा के विश्वस्त सहयोगी बालकृष्ण पर आरोप पर आरोप लगना बाबा के मिशन को विफल बना देंगे.
हमें नहीं पता कि बाबा किस के लिए काम कर रहे हैं? उन्होंने स्वयं यह बेड़ा मन की अंतर आत्मा की आवाज़ पर उठाया है या फिर उनके पीछे कोई और उनको यह साहस प्रदान कर रहा है कि काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते रहें ताकि बाबा और उनके साथी पर भी कोई हाथ ना डाले और वह भी अपने उद्देश्य में सफल हो जाएं जो उनके पीछे हें

यानी यह कि कांग्रेस हटाओ देश बचाओ और महंगाई के खिलाफ जनता को बद दिल करने के बाद “हम भी” सफल और “तुम भी”। या वास्तव मैं बाबा की अंतर आत्मा उन्हें परेशान कर रही है और वह यह देखकर दुख और अफसोस से बदहाल हैं कि हमारे देश के वासी और नेता किस निचले स्तर तक पहुंच गए हैं और अब जरूरी हो गया है कि बुराई के खिलाफ आवाज उठाई जाए! यदि वास्तव मैं ऐसा है तो बाबा आपको अपने बारे में और अपने साथी के बारे में सोचने का अवसर क्यों नहीं मिल रहा? और अगर यह सच है कि आप देश की उन्नति व सफलता के लिया ही ऐसा सब कुछ कर रहे हो तो बाबा आप को तो उस  भ्रष्टचार से पाक होना चाहिए जिसके खिलाफ आपने आवाज़ उठाई है । उठो बाबा उठो अगर कर की चोरी मैं आप या आपके ट्रस्ट और आयुर्वेदिक दवाएं बनाने वाली तुम्हारी कंपनियां आती हों तो पहले उसका भुगतान करो साथ ही बालकृष्ण और इन जेसे तमाम लोगों के खिलाफ आवाज़ उठाओ, तब ही देश और देश वासियों को आप पर विश्वास होगा और देश तुम्हारा और आपके मिशन का पूरा साथ देगा
 =========================================================


कर चोर बाबा ?
देश और विदेश रखे काले धन के खिलाफ आवाज़ उठाने, अंशन ​​पर बैठने और देखने से सार्वजनिक आंदोलन चलाने का दावा करने वाले बाबा रामदेव आजकल खुद ही परेशानी में घिरते नज़र आ रहे हैं मामला यह है कि काले धन के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले बाबा के ट्रस्टों और आयुर्वेदिक दवाएं बनाने वाली कंपनियों में कर चोरी के खिलाफ आयकर विभाग ने मजबूत रिपोर्ट तैयार कर ली है जबकि बाबा और उनके समर्थकों का आरोप है कि यह रिपोर्ट कांग्रेस पार्टी ने बाबा के खिलाफ बदले की भावना से तैयार तय्यार करवाई है लेकिन यूपीए सरकार ने इस आरोप को खारिज करते हुए कहा कि यह आयकर विभाग की खुद अपनी कार्रवाई है और यह जांच पहले से जारी है अब अगस्त अनशन ​​की समाप्ति पर बाबा का कहना है कि हमारा आंदोलन "कांग्रेस हटाओ देश बचाओ" जारी रहेगा ऐसे में सवाल यह उठता है कि बाबा जो खुद आयकर की चोरी में आने वाला हो और उसका खुद का मामला भी कुछ साफ नहीं तो वह कैसे काले धन के अंत की बात कर सकता है?
 ==========================================================


अगर यही करना था तो अंशन का नाटक क्युं किया ?
लोकपाल कानून पारित करवाने के लिए बनी टीम अन्ना भंग हो गई है। अन्ना हजारे ने सोमवार को अपने ब्लॉग पर इसकी घोषणा की। उन्होंने लिखा, “बार-बार अनशन करने से कोई फायदा नहीं हुआ। सरकार जनलोकपाल कानून बनाने के लिए राजी नहीं है अन्ना के मुताबिक टीम अन्ना का गठन जनलोकपाल के लिए हुआ था, लेकिन अब सरकार से बातचीत नहीं करने की वजह से इसका काम खत्म हो गया है। इस ब्लॉग में अन्ना ने बताया है कि राजनीतिक विकल्प के लिए कैसे ईमानदार लोगों का चयन किया जाएगा। और यह भी लिखा कह,”लोगों की मांग हमसे बढ़ती जा रही थी, अब अनशन छोड़ो और जनता को नया विकल्प दो। मांगों को देखते हुए मैंने भी सोचा आज की सरकार से देश का भ्रष्टाचार कम नहीं हो सकता क्योंकि सरकार की ऐसी मंशा ही नहीं है। इसलिए जनता को दूसरा विकल्प देना ही अब रास्ता है“। याद रखना चाहिए की यह वही लोग हैं जो राजनीती को बुरा भला कहते रहे, राजनितिक लोगों को गलियां देते रहे अब खुद उसी दलदल मैं उतरने के लिया बेचेन नज़र आ रहे हें। सवाल यह है कह अगर यही सब उनका मकसद था तो फिर यह बयान बाज़ी और अंशन के नाटक क्युं किया गए? लोगों का वकत उनका पैसा उनकी  भावनाओं से क्युं खेला गया? हम भी जानते हें और आप भी कह इस देश की राजनीती झूट और धोके बाज़ी तक ही सिमित है। इसलिए इन धोके बाज़ लोगों से हुश्यार रहने की जरूरत है। इन के साथ अपना और वकत खराब ना करें बल्कि कुछ ऐसे विकल्प तलाश करने चहिए जो ना सिर्फ देश को मूल्य आधारित राजनीति दे सकते हों बल्की हिंदू मुस्लिम एकता भी प्रदान कर सकते हों। देश जो आर्थिक उथल पथल का शिकार है उसका भी वह कोई समाधान रखते हों। यह लोग कोन हैं और कहाँ? पक्षपातपूर्ण सोच से मुक्त होकर उनकी तलाश जारी रखनी चाहिए। जिस दिन यह विकल्प सामने आयेगा उस दिन देश का कल्लायण होगा और एक नया इतिहास लिखा जाएगा।
 ==========================================================

चक्रव्यूह मैं घिरते हम और हमारा समाज
दुन्य मैं जब कोई बच्चा पैदा होता है तो उसके माता पिता उसको ढेर सारा प्यार करते हें, जानने वाले बधाई देते हें और लोग खुश्याँ मानते हें! लेकिन हमारे देश मैं किया हो रहा है? यहाँ तो 87 वर्षिय नेजा जी के घर मैं एक जवान बेटा भगवान ने दिया है लेकिन वह खुश नही! और यह बेटा! बेटा जिसको भगवन का रूप भी कहा जाता है वह खुद ही को पिता का बेटा साबित करने के लिया DNA टेस्ट का सहारा लेता है!! है भगवान यह तेरी धरती पर क्या हो रहा है? बेटा DNA टेस्ट करवाता है और उच्च न्यायालय फैसला करता है. यह केसा पिता, केसा बेटा और केसा देश है? यहाँ मर्यदाओं से खिलवाड़ हो रही है और लोग हैं कह खामोश बैठे हैं, क्युं? क्युं ऐसा हो रहा है? यह तो भारत है और भारती समाज है. फिर किया हो गया है इस भारत के भारती समाज को? कहीं यह भारती समाज पश्चिमी सब्भेता को तो इख़्तियार नही करने लगा है? अगर ऐसा ही है तो फिर हमारे देश की दुन्य के सामने किया पहचान बचेगी? आज प्रश्न बहुत हैं जो हर तरफ बिखरे पड़े है. और हम और हमारा समाज इन प्रश्नओं के चक्रव्यूह मैं घिरता जा रहा है, किया हमें इस बात की खबर है?

==========================================================
भारत मैं घूसखोरी
भारत मैं घूसखोरी अब आम बात हो गई है. सरकारी संस्थानों व निजी संस्थानों मैं किसी भी काम को करवाने के लिए घूस आम और आसान तरीका बन चुका है. लेकिन चिंता और बहुत अफसोस की खबर यह है कि देश के अस्तित्व और उसकी सुरक्षा करने वाली सेना, उसके अधिकारि और अघीनस्थ मैं भी घूसखोरी तेजी के साथ बढ़ती जा रहे है. कल के अखबार की सुर्खियों के अनुसार "सियाचिन का प्रभारी मेजर जनरल घूस लेते गिरफ्तार, अधिकारी के खिलाफ न्यायिक जांच का आदेश जारी, स्टिंग ऑपरेशन के दौरान कार्रवाई " ने देश के उन साहसी लोगों के चरित्र का हनन किया है जो देश के लिए अपनी जान तक देने को तैयार रहते हैं साथ ही उन अधिकारियों और अघीनस्थ की इस घिनाव्नी हरकत ने उनके प्रतिष्ठा को बदनाम किया हैं. इन परिस्थितियों में जरूरी हो जाता है कि ऐसे आरोपियों की जाँच के बाद उन्हें कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए और उन्हें इस अहम जिम्मेदारी से अलग किया जाए. रिपोर्ट में कहा गया है उत्तर कमांडनट में आर्मी सप्लाई के प्रभारी और एक मेजर जनरल को उस समय रंगे हाथों गिरफ्तार किया गया जब वह एक स्थानीय कन्ट्रेक्टर से घूस ले रहे थे. स्टिंग ऑपरेशन के दौरान अधिकारी को घूस लेते हुए रंगे हाथ पकड़ा गया. मेजर जनरल शर्मा के मातहत बड़े पैमाने पर अशांति और विद्रोह को रोकने के लिए सेना है जो सीमा पर तैनात है. कमांडनट राशन का भी महत्वपूर्ण ग्राहक है और सियाचिन गलीशीर, कारगिल, कश्मीर घाटी के अलावा नियंत्रण रेखा पर तैनात सैनिकों के लिए राशन की खरीद करते हैं. सूत्रों के मुताबिक अच्छे किस्म के अनाज के वितरण की जिम्मेदारी 2010 में उत्तर कमांडनट को उस समय दी गई थी जब आडेट में पायागया के आर्मी के जवानों को सप्लाई होने वाले अनाज की गुणवत्ता मानव उपयोग के लिए हानिकारक है क्यों की यह अनाज एक्सपायरी तिथि समाप्त होने के बाद आपूर्ति की गई थी. गौरतलब पहलू है कि यह गैर जिम्मेदाराना रवैइया और भ्रष्टाचार तब भी था जब उसे रोकने के लिए नए जिम्मेदार नियुक्त हुए  थे और आज फिर उस ही जैसा मामला सामने आगया, आखिर घूसखोरी और भ्रष्टाचार को भारत मैं केसे रोका जा सके गा? किया यह सिस्टम की खराबी है या सिस्टम चलाने वालों की ? अगर यह सिस्टम चलाने वालों की खराबी है तो सिस्टम चलाने वाले तो लगातार बदले जा रहे हैं फिर भी सिस्टम मैं बदलाव क्यूँ नही आ रहा है?
==========================================================
बहत्तर छेद और जातिवाद राजनीति!
भारत जहाँ ग़रीबी और भुकमरी की रेखा अपने चरम पर है, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और इन जैसे मानव समस्याओं से जूझ रही है, देश की अखंडता का जोखिम दिन परति दिन बढ़ता जा रहा है, भ्रष्टाचार की जड़ें जहां खूब मजबूत हो चुकी हैं . नक्सली ज़ोर जहां एक महत्वपूर्ण समस्या बन चुकी है, देश की अर्थव्यवस्था और रुपये की कीमत जहां अपने कम स्तर पर पहुंच चुकी है, लोकतंत्र की जड़ें जहां खोकली हो रही हैं, गुंडा गर्दी, आतंकवाद और अपराध का ग्राफ जहां हर सुबह ऊपर ही उठता है, मानसिक तनाव और मनोविज्ञानिक समस्याओं से ग्रस्त लोग बढ़ते ही जा रहे हैं, समाज पर अश्लीलता और नैतिक पतन के बादल ज्यादा काले हो रहे हैं. यह और इन जैसे अनगिनत समस्याऐं जिस देश में मौजूद हों वहां के राजनीतिज्ञ यह देखने की बजाय कि बुराई क्या है? यह कैसे खत्म कि जा सककी है, सुधार के वे कौन से सूत्र विकल्प किया जाएं जो देश और समाज में मानव सहिष्णुता, सहानुभूति, भाईचारा और प्यार की फिज़ा क़ाईम हो. इस ओर ध्यान, विचार और चर्चा के बजाय उन मुद्दों पर बहस हो रही है जिससे समाज में दूरियाँ पैदा होंगी. याद रखना चाहिए कि जातिवाद और जाति पर आधारित समाज  कल देश के लिए उपयोगी साबित हुआ था और  भविष्य होगा. इसलिए इस्लामी शिक्षा जो वास्तव मैं केवल मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि सभी मनुष्यों के लिए है. उन शिक्षाओं पर ठंडे दिल और मुतअस्सिब मानसिकता से मुक्त होकर विचार करना चाहिए. यदि इस्लामिक शिक्षा में देश और समाज के लिए स्पष्ट निर्देश और मार्गदर्शन हों तो सबसे पहले लोगों से प्रेम अनुसार और बाद में समाज सुधार  देश में अखंडता और एकता के आधार पर स्वीकार किया जाना चाहिए. इस अखंडता, एकता और मानव प्रेम तथा देश और समाज के कल्याण और बहुमुखी की खा्रपहले उन लोगों यह जिम्मेदारी बनती है जो शिक्षा को मानते  जानते हैं. ऐसे लोगों को चाहिए कि वह इस्लाम और इस्लामी शिक्षाओं को  केवल मुसलमानों के कल्याण  तक महदूद रखें बल्कि सभी लोगों तक पहुंचाने का संघर्ष करें, जिनके बीच वे उठते बैठते हैं, साथ ही उन सभी Forums  में इन मामलों को बहस मैं लाएं जहां मानवता और मानव प्रेम की भावनाओं को बढ़हया चढ़ाया जाता हे. उम्मीद है इस तरह देश के खोखले पन और सामाजिक आधार पर दूरियों को किसी हद तक कम किया जा सकेगा!
==========================================================

उम्मत- मुस्लिमा की सौभाग्य इज्जत की रात!

मेराज की घटना को गलत दिशा देना, इस घटना से अन्य पेश आने वाली बातों को जोड़ देना, इस रात मैं विशेष इबादत करना और रात इस रात ही को मंज़िलत की रात करार देना, यह सब बातें बिदत में शामिल की जाने वली हैं हालांकि हमारे रात और दिन के कार्यों में परिवर्तन आए, हम फराईज़ को अंजाम दें जो हर दिन पांच बार हम पर बाज्मात फर्ज़ है. यह घटना शहादत के लिए काफी  होगी कि हमारे विश्वासों और विचारों, चिंताएं और कथन और प्रक्रिया में मतभेद है. विश्वास की अनिवार्य आवश्यकता है कि जो बात अल्लाह रसूल द्वारा बताई जाए उसे स्वीकार किया जाए साथ ही जीवन को उसके अनुसार ढाल लियाजाए.

==========================================================

देश के अश्लील नेता
देश के विकास की बात हो या समाज सुधार, हर मोर्चे पर राष्ट्र का नेता महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है लेकिन अगर हमारा नेता वादा खिलाफी करने वाला हो, गलत काम करने वाला या बदमाश हो, अगर उसका आचरण दुरूस्त न हो, अगर लगातार उसका नैतिक पतन हो रहा हो, तो समाज और देश का विकास और सुधार रुक जाएगा. न केवल विकास और सुधार रुक जाएगा बल्कि देश व समाज गिरावट, पिछड़ेपन का शिकार होगा.

इस समय देश-प्रिय भारतीय नेताओं में नैतिक पतन अपने चरम पर आ चुका है. इस नैतिक पतन के विभिन्न पहलुओं पर सोचने और विचार करने वाले लोग लगातार आवाज़ उठा रहे हैं लेकिन लगता है कि यह पतन दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है. हाल ही में कर्नाटक के मुख्यमंत्री यदूरप्पा के खिलाफ आवाज उठना बंद ही हुआ था कि अब इसी राज्य के तीन मंत्री अश्लील फिल्म देखते हुए पाए गए. अश्लील फिल्म देखने वाले मंत्रियों के इस्तीफ़े प्राप्त करने के बाद उनको सदस्यता से अयोग्य घोषित कर देने की बात विपक्ष ने कही तो उनकी मांग को खारिज कर दिया गया और अपनी साख बचाने के लिए विपक्षी दलों को इस मामले पर 146 और नियम 363 के तहत बहस का मौका भी नहीं दिया गया. बाद में एक समिति गठित की गई जिसमें भाजपा, कांग्रेस और जेडीएस के दो-दो सदस्य रहेंगे. यह 6 सदस्यीय समिति 12 मार्च तक विधानसभा में रिपोर्ट पेश करेगी. विधानसभा से बाहर सदारामय्या ने संवाददाताओं से कहा कि विपक्ष को बहस का मौका नहीं देना यह साबित करता है कि सरकार सदन में अश्लील फिल्म देखने वाले मंत्रियों के पीछे शरण कर रही है. ऐसी सरकार को सत्ता में रहने का नैतिक अधिकार नहीं है. इसलिए दागदार मंत्री को विधानसभा की सदस्यता से अयोग्य घोषित किया जाए. कानून के विशेषज्ञों का कहना है कि मंत्रियों के दोषी पाए जाने पर 3 साल की कैद और 5 लाख का जुर्माना हो सकता है क्योंकि विधानसभा में अश्लील फिल्म देखना अपराध है.

यह नैतिक पतन, जिसकी वजह से समाज खोखला होता जा रहा है, ऐसा नहीं है कि आज की देन है और कल के लोग सुरक्षित रहे हैं, बल्कि यह नैतिक पतन कल भी था. इसी लिए सृष्टि-निर्माता ने क़ुरआन में विभिन्न क़ौमों की चर्चा करते हुए बताया कि इनमें कौन सी कमियां और बुराईयां थीं जिनकी वजह से मौत के शिकार हुए. कुरआन में अल्लाह ने कहा है कि "और लूत को हमने पैगम्बर बनाकर भेजा, फिर याद करो जब अपनी क़ौम से कहा: क्या तुम ऐसे निर्लज्ज और ख़राब हो गए हो कि अश्लील काम करते हो जो तुम से पहले दुनिया में किसी ने नहीं किया? (अल-आराफ: 08). और यह भी कहा कि "और मदीने वालों की तरफ हमने उनके भाई शोएब को भेजा. उसने कहा: हे राष्ट्र के बंधुओं, अल्लाह की उपासना करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई खुदा नहीं है. तुम्हारे पास तुम्हारे रब की स्पष्ट ​​मार्गदर्शन आ गई है, इसलिए वजन और पैमाने पूरे करो, लोगों को उनकी चीज़ों में घाटा न दो "(अल-आराफ: 58). कुरान ने बहुत विवरण के साथ उन बुराइयों की ओर ध्यान दिलाया है और कहा है कि वह अपमान भरे काम हैं.  लेकिन इसके बावजूद घटना यह कि बुराईयां उन लोगों में भी बढ़ रही हैं जो कुरान के पढ़ने वाले हैं और उनमें तो बढ़ती ही जा रही हैं जो कुरान पर विश्वास नहीं रखते. आज भारत में हर वह बुराई मौजूद है जिसका उल्लेख कुरान ने किया है लेकिन सोचने की बात यह है कि क्या इन बुराईयों को समाप्ति के लिए कुछ कदम उठे हैं? अगर हां, तो वे कौन लोग हैं जो इस ओर पेशकदमी कर रहे हैं और क्या वे बुराईयां नहीं जिनके अंत की ओर वह आवाज उठाते हैं.


आज भ्रष्टाचार का मुद्दा जोर व शोर से उठाया जा रहा है और यह तथ्य है कि भ्रष्टाचार, काले धन और रिश्वत देश की अर्थव्यवस्था को बहुत पीछे ढकेल दिया है. इसके बावजूद आज हम विश्व में उभरते हुए देश के रूप में माने जाते हैं, लेकिन क्या यह सही नहीं कि हमारे समाज में रिश्वत और जालसाज़ी, काले धन और भ्रष्टाचार को नियंत्रित कर लिया जाता तो हम और भी आगे होते. लेकिन सवाल यह है कि क्या यह भौतिक विकास ही हमारी सामाजिक विकास का सबूत है या हमें भौतिक विकास के साथ नैतिक विकास की भी आवश्यकता है?


सोचनीय विषय यह है कि यह नैतिक विकास कैसे प्राप्त होगी? कुरआन में अल्लाह ने  कहा  है कि "वह किसी नेमत जो उसने किसी राष्ट्र को दी हो तब तक नहीं बदलता जब तक वह जनता अपने व्यवहार नहीं बदल देती "(अल-इंफाल: 35).


जिस देश में हम रहते हैं अगर वह नैतिक पतन से ग्रस्त हो, समझो इसके पतन के दिन करीब आ रहे हैं, इस पर खुदा और फरिश्ते लानत भेज रहे होंगे,  इस देश और देशवासियों की विफलता लिखी जा चुकी होगी,  और वह बर्बादी के कगार पर आ लगे होंगे. और इन परिस्थितियों में वो लोग जो दावा करते हैं कि हमारे पास प्रभु की शिक्षा मौजूद है. उसका प्रदर्शन न अपने काम करते हैं, न अपने कथन से करते हैं, न लोगों को इस ओर आकर्षित करते हैं और न ही वह ऐसा कुछ करने की भावना रखते हों. तो फिर क्यों वह मृतकों में शुमार नहीं होंगे जिनके शिकार दूसरे हो रहे हैं. यह समय वह भी नहीं कि दूसरों की तबाही पर खुश हुआ जाए और समझा जाए कि जबकि वह मारे जाएंगे तो हम को स्वतः सत्ता प्राप्त हो जाएगा और हम अल्लाह की मर्ज़ी को अल्लाह की ज़मीन पर लागू कर देंगे.


हक़ीक़त यह है कि यह दूसरे दूसरे नहीं, हमारे अपने ही हैं. दिन रात वह आपके साथ गुज़ारा करते हैं, लेनदेन और कारोबार करते हैं,खुशी और ग़म में शामिल होते हैं, देश और समाज को संवारने और बिगाड़ने में साथ देते हैं. ऐसे स्थिति में जबकि वह और आप हर अवसर पर एक दूसरे के साथी ठहरे तो फिर क्यों वह "दूसरे" हुए. यह मौका बर्बाद करने का नहीं बल्कि अवसर का लाभ उठाने का है. इससे हमारा अर्थ यह कि आप अपने कथन और अपने काम से उन पर इस्लाम पूरे का पूरा स्पष्ट कर दें. और इस्लाम की व्याख्या आपको तब ही करने का नैतिक औचित्य हैं जबकि आप इस पर स्वयं अमल कर रहे हों. इससे आगे कि यह इस्लाम जीवन के किसी क्षेत्र में स्थापित होने के लिए नहीं आया बल्कि जीवन के सभी क्षेत्रों में जारी होना चाहिए.

vvvvvvv

جمہوریت کس کروٹ اپنا رخ بدلتی ہے؟ مدر آف ڈیموکریسی میں الیکشن 2024 کا آغاز ہوا چاہتا ہے !!!   محمد آصف اقبال، نئی دہلی بھارت میں اس...